सादर अभिनन्दन...


सादर अभिनन्दन...

एक छोटी सी कहानी (भाग-2)

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कार्यक्रम से लौटने के बाद दोस्तों ने घूमने की योजना बनाई। पर मेरा मन ना जाने क्या चाहता था, स्थिर नहीं था। उन्होंने बहुत कोशिश  की पर मैं नहीं गया। मैं सीधे हॉस्टल लौट गया।  जैसे मन में कुछ  चुभ सा गया हो, या कुछ खो गया हो। अजीब सी बेचैनी थी। कमरे में जा कर दरवाजा बंद किया और अपनी शर्ट उतार कर बिस्तर पर फेंक दी। ऐसा मैं कभी नही करता था पर न जाने क्यों, आज अपने आप ही हो गया। मन में किस बात की टीस थी, नहीं जानता। मेज के  नीचे से कुर्सी खींच कर चुप चाप बैठ गया और आंखे बंद कर के सर ऊपर  कर लिया। और थोड़ा सा सामान्य होने की कोशिश करने लगा। पर सम्मोहन इतनी जल्दी कहाँ मिटने वाला था। बंद आँखे स्टेज का सारा दृश्य फिर से दिखाने लगीं। फिर से उसके पैरों की थिरकन दिखी, क्या गजब की कलात्मकता थी उसमे। उसके हाथो का हवा में लहरना दिखा। पार्श्व में बजता हुआ संगीत, उसके हाथों और पैरों का सामंजस्य, हर एक दृश्य सजीव हो उठा। उसकी भाव भरी आँखे, कलाई और उंगलियों की कौशल; सचमुच, क्या जादूगरी थी। सबसे ज्यादा गजब ढा रहा था उसका पहनावा। नृत्य का पारंपरिक परिधान इस सम्मोहन को और भी गहरा बना रहा था।
    "कितनी खुबसुरत है ... ", मेरे होठों पर हल्का सा स्पंदन हुआ। इसी के साथ जैसे मैं  स्वप्न से जगा।
    "हह्ह्ह ...", मेरे सिर ने क्षैतिज के समान्तर दो चार दोलन किया और एक मंद मुस्कान मेरे चहरे पर छा गयी।
मैंने अपने चारो ओर  देखा। सब कुछ बिखरा पड़ा था। किताबे, कपड़े, जूते, चादर सब कुछ अस्त-व्यस्त था।
   "जानवर हो गया हूँ मैं, क्या हालत कर रखी है कमरे की...?" , मेरे मुह से अपने आप ही निकल गया।
   "क्या बात है, आज ये बदलाव कैसा?", मेरे मन में चुटकी ली।
    "बदलाव ...? कैसा बदलाव?", मैंने उत्तर न देकर फिर से प्रश्न किया।
    "कुछ दिख रहा है ..."
    "क्या?"
    "कुछ नयापन सा दिख रहा है आज ...", मन ने फिर परिहास किया।
    "च्च ..."
मैं सामान व्यवस्थित करने लगा जिसकी शुरुआत मैंने मेज से शुरू की। मैंने गौर किया कि मेरी पेन खुली पड़ी थी। एक छोटी सी डायरी थी जिस पर हल्की सी धूल जम गई थी। कुछ किताबें तो यूँ बिखरी थीं मानों उनके भाग्य में कभी अच्छे से बंद होना लिखा ही न हो। मुझे लगा जैसे ये सब चीजे मुझे गाली दे रहीं है। मैंने उन्हें समेटने के लिए हाथ बढाया ही था कि...
     "फिर से ...?", मानों मेरे मन ने जैसे मुझे रोकने की कोशिश की।
और मेरे हाथ अचानक ही रुक  गए। "फिर से" का क्या मतलब है? मन मुझे अतीत में कुछ साल पीछे ले गया।


     मेरे कस्बे का एक छोटा सा पार्क, जहाँ शाम की कोचिंग के बाद मैं और शैल्या रोज ही आया करते थे। पार्क के एक कोने में पत्थरों का बना हुआ एक छोटा  सा गड्ढा था, जिसमे कुछ मटमैला सा पानी भरा हुआ रहता था। उसी के पास एक अमलताश का पेड़ था। कुछ सुगंधहीन फूलों के झाड़ीनुमा पौधे भी थे। यह मेरी पसंदीदा जगह हुआ करती थी। और सामान्यतः यहाँ एकांत ही रहता था। उस दिन भी मैं और शैल्या उस अमलताश के नीचे बैठे थे। अमलताश पर बहार थी। पीले फूलों से लदा हुआ वह बहुत ही मनोरम दिख रहा था। और मैं ऐसे माहौल में मैं शैल्या को रसायन विज्ञान के कुछ समीकरण समझा रहा था। पर वो ध्यान दे तब तो। हौले से मेरी तरफ खिसकी और मेरे बाएं कंधे पर अपना सर रख दिया। फिर मेरी हथेली अपने हाथों में लेकर धीरे-धीरे सहलाने लगी। मेरे दिल की गतिविधि कुछ असामान्य सी होने लगी। मन में एक तरंग उठी जो मुझे विस्मरण की ओर ले जाने लगी। जो बची-खुची कसर थी, हवा ने पूरी कर दी। उसके बाल  खुले हुए थे और उनमे से कुछ ने हवा का सहारा लेकर मेरे गालों को कुछ इस जादूगरी से छुआ, क्या बताऊ मैं। इतना गहरा विस्मरण मुझे कभी नहीं हुआ था। मुझे अपने चारो ओर  के वातावरण का कुछ भी भान न रहा।
    "नमन ...", उसकी धीमी आवाज ने इस विस्मरण में विक्षोभ उत्पन्न किया।
    "ह्...हाँ..., कहो?"
    "तुम ... मुझे भूलोगे तो नहीं ना ?"
    "पगली, ऐसा कभी हो सकता है, तुम मेरी सबसे अच् ..."
    "कभी भी नहीं ना ...?", वो बीच में ही बोल पड़ी।
    "अगर ऐसा हुआ तो समझना कि  तुम्हारा नमन किसी और दुनिया में खो गया है।", मैंने उसके उड़ते हुए बालों को अपनी उंगली से उसके कान के पीछे फसाते हुए कहा।
फिर अपनी दोनों हथेलियों में उसका चेहरा ले कर अपनी ओर  घुमाया। अजीब सा भाव था उसके चहरे पर, सहमी-सहमी सी लग रही थी। न जाने क्या खोने का डर सता रहा था। उसकी आँखों में मुझे हजारों सवाल नजर आये। उसके डर  ने मुझ पर भी अपना असर दिखाया। माहौल बहुत संजीदा हो गया था। मैंने इसे हल्का करने के लिए अमलताश के दो फूल लिए और उसके कानों की बालियों में लगा दिए।

    "क्या बात है, आज तो सारी बहार सिमट कर तुम्हीं में समां गयी है।", मैंने उसे छेड़ते हुए कहा।
 लाज के मारे उसका चेहरा लाल पड़ गया। उसने आँखें झुका लीं। उसके होठों ने एक कातिलाना मुस्कान से मुझपर हमला किया। और फिर उसका चेहरा भी झुक गया।
    "जानती हो आज मैं समझ नहीं पा रहा हूँ की प्यार और तुममे खुबसुरत कौन है ?"
और वो सर झुकाए मिटटी कुरेदे जा रही थी।
तभी एक गिरगिट हमारे सामने से भागा। उसे देखते ही वो चींख पड़ी।
   "आ .... ऊ ...."
मुझे हँसीं आ गयी। कमरे की रोशनी थोड़ी सी धुंधली प्रतीत हुई। डायरी और किताबें भी साफ़ नहीं दिख रहीं थीं। मुझे कमरे का वातावरण अजीब सा लगा। अँगुलियों ने आँखों के कोनो को छुआ तो कुछ नमीं का एहसास हुआ। जाने क्यूँ और कहा से आ गयी थी। अब सब कुछ साफ़ दिख रहा था। सब कुछ सामान्य हो गया था। मैंने किताबों को सही किया, डायरी से धूल झाडी और पेन को बंद करके डायरी के साथ रख दिया।

::::::::::::::::: 7 :::::::::::::::::

कल समारोह का अंतिम दिन था। आज सभी प्रतिभागी लौट रहे थे। अधिकतर तो जा भी चुके थे।  मैं रोज शाम की तरह आज भी कैम्पस के पार्क में बैठा हुआ अपने खयालो में खोया था। कल अपने अजीब बर्ताव को याद कर मन ही मन हँसे जा रहा था। न जाने कल मुझे क्या हो गया था। स्वप्निल से की हुई सारी बाते याद आ रही थी। तभी एक पेड़ की ओट  में किसी के होने का आभाष हुआ। देखा, बेंच पर एक लड़की हल्के बैगनी रंग का शूट पहने बैठी थी। उसका दुपट्टा उसके बाएं कंधे पर था और आधा ढलका हुआ था जिससे उसका बाया हाथ ढक  गया था। बालों को अजीब ढंग से गूँथे हुए थी और तर्जनी उंगली की अंगूठी को घुमाये जा रही थी।
    "ये तो... वही है।", मेरे होंठ स्पंदित हुए।
 बिना कुछ सोचे मैं उठा और उसके पास गया।
    "हॉय ...", थोड़ा संकोच से भरा अभिवादन था, जिसने उसे चौंका दिया।
उसने भौंहों को सिकोड़ते हुए अजीब अंदाज में मेरी तरफ देखा, मानों मैंने उसकी तन्द्रा तोड़ कर कोई बड़ा अपराध कर दिया हो। उसकी आँखों ने प्रश्न किया, "कौन हो तुम?"
    "दोस्त मुझे नमन कहते है।", मैंने बेंच पर बैठते हुए कहा।
    "कल आपका डांस देखा था, गजब की थिरकन है आपके पैरों में। एक सम्मोहन जैसा।"
सकारात्मक उत्तर दिखा, उसके चहरे पर मुस्कान के रूप में।
    "थैंक यू ...", एक पतली सी आवाज में प्रतिउत्तर मिला।
    "चलो, कुछ तो बोली।" मेरे मन ने खुद को तसल्ली देते हुए कहा।
थोड़ी  ख़ामोशी छाई रही। फिर शुरुआत विपक्ष ने की।
     "आप इसी कालेज के हो?"
     "जी हाँ ..."
     "आपका कालेज बहुत अच्छा है।"
     "कालेज में पढ़ने वाले भी अच्छे है।", मैंने अपनी छवि सुधारने की कोशिश की।
     "अच्छा ...."
ये व्यंग था या स्वीकृति, या फिर दोनों, मैं समझ नहीं पाया।
फिर वही ख़ामोशी ...
देखा तो उसकी आँखे फिर प्रश्न कर रही थीं।
      "तो ..., आपको डांस का शौक़ कब से है, वो भी क्लासिकल?", मैंने बात शुरू करने की कोशिश की।
      "बहुत पहले से, जब मैं छोटी थी।", उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
      "मुझे क्लासिकल म्यूजिक और डांस बहुत पसंद है।"
उसकी आँखों में फिर सवाल थे।
लड़कियों को हर बात में सफाई चाहिए। और सवालों का तो पूछिये भी मत। कितने सवाल होते है उनके पास। जहा कोई संभावना न हो वहां भी प्रश्नों का हिमालय खड़ा कर सकती हैं, और करती हैं।
   होठों पर एक मंद मुस्कान लिए मैं उसे देखे जा रहा था। मेरे इस व्यवहार से उसे थोड़ी सी असहजता होने लगी। इसी बीच जाने कब हमारी आँखें मिल गयी और..., उसने आँखे झुका लीं।
हमारे बीच काफी देर तक बाते हुई। कालेज की, पढाई की, शौक़ और पसंद की, और न जाने क्या क्या। इस बीच हमारी आँखों ने कई बार लुका छिपी का खेल खेला। और शायद इन आँखों की आँख मिचौली ने ही हमारी दोस्ती भी करा दी। उससे बात करना बहुत अच्छा लग रहा था। बहुत मासूम अंदाज था उसका। स्वभाव भी बिलकुल सहज था। मन बिलकुल पानी जैसा।  जितना सम्मोहन उसके नृत्य में था उतना ही सम्मोहन उसकी मुस्कराहट में भी था।
   मन में न जाने क्या आया, मैंने उसे पढ़ने की कोशिश की। बाल आधुनिक तरीके से, काफी करीने से गुथे हुए थे। पतली भौहें, सामान्य सी आँखे। नाक का अगला हिस्सा हल्का सा गुलाबी था, मानो सर्दी सी लग गयी हो। कानों में सफ़ेद मोतियों के बुँदे पहने हुए थी। गालो पर हलकी सी लालिमा और होठो पर एक रहस्यमयी मुस्कान, जिसे समझना जरा कठिन था।
    मैं उसे देखे जा रहा था और उसकी आँखों में अनेक भाव एक साथ उमड़ते जा रहे थे। उसमे हया थी, आश्चर्य था, परिहास था, संकोच था, गहराई थी और काफी चंचलता थी। ठहरने का तो नाम भी नहीं ले रहीं थीं वो। आँखों को छोड़ दे तो उसके चहरे पर शालीनता और सौम्यता का संगम दिख रहा था। सालों बाद मन को किसी ने सम्मोहित किया था।
    "मुझे अब चलना चाहिए।",  उसने इस ख़ामोशी को तोड़ते हुए कहा।
    "हाँ, चलो मैं तुम्हे कैंम्प  तक छोड़ देता हूँ।"
चलते-चलते आखिर उसने पूछ ही लिया,
   "चेहरा पढ़ने का भी शौक़ है, या...। वैसे मेरे चेहरे में कुछ खास नहीं है, अगर आपको कुछ दिखा हो तो आप मुझे बता सकते है।"
मैंने मुस्कुरा कर उसकी ओर देखा, उसने भी मुस्कुरा कर प्रतिउत्तर दिया।
    "जी हाँ, दिखा है कुछ खास।"
    "क्या?"
    "शालीनता, सौम्यता, भोलापन, सादगी और आधुनिकता का संगम।"
इस बार प्रतिक्रिया उसके पूरे चेहरे ने दी। एक साथ अनगिनत भाव आ गए।
    "तुम्हारे चहरे पर इतने रंग एक साथ आते कैसे है?"
    "जी ...?"
    "इन्हें समझना थोडा कठिन है।"
बिना कुछ बोलो वो चलती रही। और अब कैम्प भी आ गया।
    "ओके..., तुम्हारा कैम्प  आ गया।"
    "हम्म ..."
    " तुमसे मिलकर अच्छा लगा।
    "मुझे भी।", यह कह कर वो जाने को हुई।
    " सुनो, तुम्हारा कोई नाम तो होगा?"
वो खिलखिला कर हँस  पड़ी।
    "हाँ है न, चारू।"
    "अच्छा है।"
    "शुक्रिया, बाय!"
    "ह्म्म, बाय!"
    "सुनो, अगर तुम चाहो तो ...", मैंने एक कागज का टुकड़ा उसकी ओर बढाया जिसपर मेरा नंबर लिखा हुआ था।
उसने पढ़ा और फिर मेरी तरफ देखा। एक हलकी सी मुस्कान के रूप में मैंने उसे जवाब दिया और लौट आया।

::::::::::::::::::: 8 ::::::::::::::::::

 टेस्ट खत्म होते होते शाम हो गयी। मन उदास सा था। कई कारण थे, जिनमे से एक था टेस्ट का मन मुताबिक न होना। मैं कुछ देर अकेले रहना चाहता था इसीलिए  हास्टल न जाकर थोड़ी दूर स्थित पार्क में चला गया।  पार्क में काफी चहल-पहल थी। लोग मेरी ही तरह वक़्त काटने आये थे, कुछ टहलने भी आये थे। बच्चे खेल रहे थे। अच्छा खासा शोर था। मुझे अपने ऊपर झल्लाहट हुई।
    "हास्टल  ही चले जाना चाहिए था।", मैंने अपने आप से बात की।
एक कोने में जा कर एक पेड़ के नीचे  बैठ गया और लोगो को देखने लगा। अजीब दृश्य था, जैसे लग रहा था कि लोग अपनी सम्पन्नता का प्रदर्शन करने आये हों। उन्हें देख कर मुझे हँसी  आ गयी, इस हँसी  में व्यंग था। फिर अचानक से टेस्ट की याद आ गयी जो कि संतोषजनक ही था। मैं अपने ऊपर बहुत खीझा हुआ था। मेरी इस झल्लाहट और खीझ का खामियाजा बेचारे उस छोटे से पौधे को भुगतना पड़ा जो मेरे पास ही अपने छोटे-छोटे सफ़ेद फूलों  के साथ झूम रहा था। किसी तरह की घास का पौधा था, पर सुन्दर लग रहा था, और शायद इसीलिए मैंने उसे उखाड़  कर फेंक दिया। मेरे मन में कुछ चल रहा था। कुछ उलझन सी थी।
    "किसी को मुझसे मतलब नहीं है, और क्यों हो?", मैंने झल्लाहट उगलते हुए न जाने क्यूँ ये बात कही।
 हफ्ते से ज्यादा दिन बीत गए थे। टेस्ट के तनाव में बहुत कुछ भूल बैठा था। पर यूँ अचानक उसकी याद आ जाने से थोड़ी हैरानी हुई। पर अपनी उदासी कम करने के  मैंने कुछ पुरानी बाते याद करने की कोशिश की। और आँखों ने सीधा वही दृश्य दिखाया जब मैं और चारु एक साथ बैठे थे।  मुझे उसकी आँखों की चंचलता पर हँसी  आ गयी। फिर मेरी नजर उस पौधे पर पड़ी जिसे मैंने उखाड़ दिया था। मन में जाने क्या आया, मैं उठा और उस पौधे को उठा लाया।
    "बिल्कुल तुम्हारे जैसे ही पौधे मेरे यहाँ भी हुआ करते हैं।", मैंने बेचारे पौधे से बात करने की कोशिश की।
    "सच में बिलकुल यही तो है वह पौधा जब मैं और शैल्या.....", मेरे मन में ये बात कई बार प्रतिध्वनित हुई।
    "उस दिन भी तो यही पौधा था....."
उस दिन वो कितनी उदास थी। उसे उतना दुखी मैंने कभी नहीं देखा था। वो अमलताश के नीचे, पानी वाले गड्ढे के पास बैठ कर मेरा इन्तजार कर रही थी। पर मैंने काफी देर कर दी थी, इसीलिए दौड़ते-भागते मैं उसके पास पंहुचा।
    "माफ़ करना, देर हो गयी यार!", मैंने उसके पास बैठते हुए कहा।
    "हम्म, कोई बात नहीं; अब तो आदत सी हो गयी है।", उसने मुस्कुराते हुए कहा।
    "मुझे स्वप्निल के साथ जाना पड़ गया था, इसीलिए देर हो गयी।" मैंने अपनी समस्या बताने की कोशिश की।
उसने कोई उत्तर नहीं दिया।
कई दिन हो गए थे हमारी मुलाकात को। मैंने उसका हाथ थाम  कर पूछा,
    "कैसी हो?"
पर उसने कुछ भी नहीं कहा। बस मुस्कुराते हुए धीरे से अपना हाथ छुड़ा लिया और कातर नजरों से मेरी तरफ देखने लगी। मुझे कुछ समझ में नहीं आया। जिन आँखों में हमेशा चंचलता रहती थी, आज उनमे कितनी गंभीरता थी। मैं इसका कारण  नहीं समझा पाया। मैंने कभी भी उसके चहरे पर इतनी संजीदगी नही देखी थी।
    "बात क्या है...?", मैंने प्यार से पूछा।
पर वो कुछ बोली नहीं।
   "कुछ तो कहो, तुम्हारी ख़ामोशी चुभ रही है।"
   "कुछ देर तुम्हारे साथ बैठने का मन है।"
   "यूँ ही खामोश, बिना कुछ बोले ...?"
   "ह्म्म ...", उसने सर हिलाते हुए कहा।
कुछ देर ख़ामोशी छाई रही। वो अपने पैर के अंगूठे से मिट्टी कुरेदे जा रही थी। पर मुझे उसकी ख़ामोशी से उलझन सी होने लगी। शायद उसने मेरा मन पढ़ लिया। उसने धीरे से अपना हाथ मेरे हाथ पर रखा और कहा,
    "नमन ...", बस इतना ही कह कर रुक गयी।
उसके हाथ बर्फ की तरह ठन्डे हो गए थे। कभी उसकी छुअन सुखद हुआ करती थी, पर आज पूरे शरीर में सिहरन सी दौड़ गयी। पूरा शरीर डर से काँप गया। मैंने उसके हाथों को कस कर पकड़ा और पूछा,
    "तुम... ठीक तो हो न?"
इस बार भी उसने कुछ नहीं कहा। बस सर झुका लिया।
    "देखो, मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा। तुम्हारा बर्ताव आज अलग सा, अजीब सा है।"
उसने कुछ कहा नहीं, बस नीचे देखती रही। मैं उसकी तरफ देखे जा रहा था। उसे समझने की कोशिश कर रहा था। तभी उसके गले में थोड़ी सी हलचल हुई, जैसे वह कुछ निगलने की कोशिश कर रही हो । मैंने गौर किया, उसकी पलकें थमीं हुई थीं। साफ़ था कि बरसात होने वाली है। मैं उसकी आँखों में कई बार आंसू देख चुका था, कभी दुःख के , कभी ख़ुशी के, कभी झुंझलाहट के, तो कभी मेरे सताने के। पर आज कुछ अलग था। कुछ भयावह सा। फिर मैंने वही किया जो हमेशा करता था, जब भी वह उदास होती थी। मैंने उसके चेहरे को अपने हाथों में थाम कर अपनी ओर घुमाया। उसकी आँखें आँसुओ से भरी हुई थीं। पलकें जरा सा हिल भी जाती तो ...
    "मेरी साँस रुक जाएगी तब बोलोगी? तुम्हारी ख़ामोशी मुझसे सहन नहीं हो रही।"
एक हलकी सी मुस्कान, जिसमे ख़ुशी नही, पीड़ा थी, के अलावा कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। और जब उसकी पलकों से आंसुओं का बोझ सहा नहीं गया तो, दो बूँदें उसके गालों पर ढलक पड़ीं। ये देख मेरे चहरे से सारे भाव गायब हो गए। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। न जाने क्या चुभ रहा था उसके मन में। जिन आँखों में हमेशा सुकून रहता था, जो आँखें इतनी गहरी थी कि सारा समंदर भी अपने अन्दर समाहित कर लें, उनमे आज कुछ बूंदे नहीं ठहर पा रही थी।
    दूसरी बूंदे गिरी। आंसुओं की पहली बूंदे थोड़ा ठिठक कर लुढ़क रही थी। पर दूसरी के लिए तो बना बनाया रास्ता था। फिर तीसरी, और ...
इससे पहले कि मैं कुछ बोलता, उसने अपनी उँगलियों से मेरे होंठ ढक दिए।
    "कुछ मांगूं तो मना तो नहीं करोगे न?"
एक तो माहौल ऐसा था और उस पर उसने जिस मासूमियत से ये बात कही,  जान भी मांगती तो शायद ना नहीं करता। पर मेरे कुछ भी कहने से पहले ही उसने फिर कहा,
    "मुझसे वादा करो कि मुझसे कभी मिलोगे नहीं।"
मुझे लगा जैसे दिल में कुछ चुभा।
    "वादा करो मुझे कभी याद नहीं करोगे।"
एक और चुभन, जैसे लगा कोई मेरे दिल को कुरेद रहा हो।
उसके आंसू थम नहीं रहे थे, लगातार बहे जा रहे थे, जैसे मेरे दिल का दर्द उमड़ कर उसकी आँखों से बहा रहा हो।
    " वादा  करो मुझे कभी याद नहीं आओगे।"
अब मुझमे सहने की क्षमता नहीं बची थी। उसका हाथ मेरे होठ से हट गया। मैंने गौर किया वो मुझे नहीं देख रही थी। उसकी आंखे कही और खोयी हुई थीं। पलकें थमी हुई थीं। वक़्त भी थमा हुआ सा था। जो कुछ नहीं थम रहा था वो थे उसके आंसूं और मेरी तड़प।
    "पर क्यूँ ...?"
मेरे सवाल पर वो थोड़ी सी चौंक गयी जैसे नींद की झपकी से जागी हो। उसके चेहरे का भाव बदल गया। अब तक न जाने कैसे उसने खुद को सम्हाले रखा था। उसके अन्दर की सारी पीड़ा उमड़ कर उसके चेहरे पर झलकने लगी। वो बस मुझे देखे जा रही थी। तड़प क्या होती, पहली बार मुझे एहसास हुआ। फिर आंसुओं में सनी हुई उसकी आवाज आयी,
    "तुम्हे मुझसे प्यार नहीं करना चाहिए था।"
मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था।
    "शैल्या, मैं ...", इसके आगे मैं कुछ भी न कह पाया।
    "नमन, अब बेहतर होगा कि हम नए रस्ते बनाये", उसने सिसकते हुए कहा।
    "क्या तुम मुझे भू ...."
    "नहीं, पर कोशिश करुँगी तुम्हे याद न करने की। तुम अक्सर कहते हो न, जिंदगी में कही भी खालीपन नहीं होता, कोई न कोई आता जरुर है। दुआ करुँगी कि जल्द ही कोई तुम्हे मिल जाये।"
मैं निरुत्तर देखता ही रहा। अब उसके आंसूं थम चुके थे।
    "आप मुझे कभी फोन मत करना, कभी भी नहीं।", उसने निवेदन भरे लहजे में यह बात कही।
और फिर मुझसे लिपट गयी। कभी और होता तो मैं उसे अपनी बाँहों में भींच लेता, पर आज जैसे मेरे हाथ थके हुए थे, मुझमे हिम्मत ही नहीं हुई उसे बाँहों में भरने की।कुछ देर वो मुझे यूँ ही पकड़े रही। और फिर अपने पुराने अंदाज में हौले से कहा,
    "इस दुनिया में कोई और नहीं होगा जो मुझे आप से ज्यादा खुशियाँ दे सके।"
फिर धीरे उठी, अपना दुपट्टा सहेजा और चली गयी। मेरे बचपन का प्यार मुझसे दूर जा रहा था। मैं बस उसके जाने की आहट महसूस कर रहा था, जैसे कभी उसके आने की किया करता था।
    मैंने आंसुओ का घूंट पीते हुए ऊपर देखा। अमलताश की बहार जा चुकी थी, अब उसपर कोई फूल नहीं थे। नीचे  देखा तो एक छोटा सा जंगली घास का पौधा अपने सफ़ेद फूलो के साथ इतरा रहा था।
दांत पिसते हुए मैंने उसे उखाड़ दिया और पानी से भरे उस पत्थर के गड्ढे में फेंक दिया। पानी में पौधे के गिरने से तरंगे उठी, विक्षोभ हुआ। कुछ ऐसा ही विक्षोभ मेरे मन में भी उठ रहा था। मुझे अपने गालों पर गर्म बूंदों का एहसास हुआ। आँखे धुंधलाने लगीं। पूरे शरीर में कम्पन सा हुआ और एक धीमीं सी अहकन ने मेरा पूरा शरीर हिला दिया। मुझे लगा मैं डूब रहा हूँ। जैसे कोई मुझे उसी गड्ढे में डूबा रहा हो। लगा जैसे मेरी साँस फूल रही है।  बस अहकना जारी रहा।
    तभी मेरे मोबाईल की घंटी बजी। उसका वाइब्रेशन मुझे अतीत से खींच कर वर्तमान में ले आया। यहाँ भी आलम कुछ कुछ वैसा ही था। शाम का सूरज धुन्धलाये जा रहा था। आँखों की नमी पोछ कर मैंने फोन उठाया।
    "हेलो!"
    "हेलो, नमन ...?"
    "चारू ...!"

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 कहानी यहाँ ख़त्म नहीं होती। ये तो शुरुआत है, एक नयी शुरुआत...   

1 comment:

  1. achchhi lagi uncle! Premi premika ki baton men aap shabd kuchh ......ajeeb lag rha hai....tum ..use kar k dekho ,bat alag ho jayegi....waise bina anubhaw k likha achchha hai.

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